जिस देश के नेता “मेक इन इंडिया“, ‘सब का साथ सबका विकास“ जैसे नारे देते है उसी देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करनेवाले रेल्वे विभाग में लोगों की अवस्था दयनीय बन चुकी है।
युवा वर्ग, महिलाएं, पुरुष, बच्चे तथा विद्यार्थी रोज ही किसी– न किसी दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं। विद्यार्थीजन अपनी आँखों में उज्वल भविष्य की कामना लिए हुए जब अपने घर से निकलते हैं तब लोकल ट्रेन की स्थिति देखकर भयभीत हो जाते हैं। तो वही नौकरी एवं व्यवसाय करनेवाले स्त्री – पुरुषों की स्थिति और भी विकट है तथा लोकल ट्रेन से यात्रा करनेवाले यात्री ट्रेन से चढ़ते– उतरते वक्त जंगली– जानवरों की तरह आपस में लड़ते हैं और एक–दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराते है।, लेकिन ग़लती तो रेल्वे प्रशासन की है और इसे समझना अत्यंत आवश्यक है। वही दूसरी तरफ कई चित्र आप सभी को रोज़ाना देखने को मिलते हैं कि किस प्रकार लोग ट्रेनों के दरवाज़े पर लटके हुए दिखाई देते हैं। वहीं महिलाओं की स्थिति भी गंभीर है। जहाँ ट्रेन में बैठने की जगह न होने के कारण लोगां को खड़े–खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है तथा महिलाओं को घर पहुंचने के बाद घर के काम–काज़ में लग जाना पड़ता है। इस प्रकार से स्थिति अत्यंत भयावह बन चुकी है, जिसका परिणाम विद्यार्थी, कामकाजी महिलायें, पुरुष, बुजुर्ग तथा बच्चे रोज ही मानसिक तनाव का शिकार होते हैं। साथ ही साथ इन सभी परेशानियों के कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ उन्हें घेरे रहती हैं जिससे मृत्यु की दर में साल दर साल बढ़ोतरी ही हो रही है। इन सभी समस्याओं को जानते हुए भी रेलवे प्रशासन ने चुप्पी साधी हुई है और न ही रेल्वे के ज़िम्मेदार नेता भी कुछ भी करते हैं।
बस लोगों के क्रोध को शांत करने के लिए बजट में सुधार की बात करते हैं जब बजट प्रस्तुत किया जाता है तो रेल यात्री भाड़े की घोषित वृद्धि को जायज ठहराते हुए रेल मंत्री कहते हैं,“यत्तदग्रे विषमिव परिणामे अमृतोपमम “ (दवाई शुरू में कड़वी लगती है परंतु बाद में अमृत जैसा उसका असर होता है।) जिस पार्टी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान हिंदोस्तान की जनता को अच्छे दिन के सपने दिखाए थे, वह अब बड़ी कठोरता के साथ लोगो को “कड़वी दवाई“ पिला रही है। वही दूसरी तरफ माल वाहन के भाड़ों को घटाने की बड़े पूंजीपतियों की मांग को बजट में पूरा किया गया है। पूंजीपति ही भारतीय रेल के माल वाहन की सेवाओं का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, इसलिए इस कदम से उनके मुनाफो में खूब वृद्धि हुई है। परंतु सामान्य लोगों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इस तरीके से लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कहा जाता है,-
”विकास सब का करना है।
सब का साथ लेकर करना है।
सब तक पहुचे ऐसा विकास करना है।
सब की भलाई के लिए विकास करना है।’’
और इस प्रकार से विकास के नाम पर रेल्वे प्रशासन इसी तरीके से झूठे वायदे कर लोगों को गुमराह करता है। वही दूसरी ओर नज़र दौडाए तो रेलवे में काम करनेवाले मोटरमैन या अलग – अलग पद के कर्मचारियों की स्थिति भी दुखद है। रोज २ करोड़ से ज्यादा यात्रियां को सेवा प्रदान करने वाली एवं हर रोज़ २५ लाख टन से ज्यादा माल ढोनेवाली ६५००० किलोमीटर से ज्यादा पटरियों वाली भारतीय रेल का, अपने देश की जनता के हित में सुचारू रूप से नियंत्रित करने के लिए रेल्वे वर्कशॉप, रेल्वे के दूसरे दफ्तरों, रेल्वे के अस्पतालों आदि में कार्यरत कर्मचारियों की भी बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मसलन अगर बुकिंग लिपिकों की कमी हो तो यात्रियों को टिकट काटने के लिए लंबी कतारों में खड़ा रहना पड़ता है। मुंबई के सभी स्थानों पर यात्रियां का यही अनुभव है। स्टेशन मास्टरों की कमी होने से स्टेशनों पर सब कुछ अस्त – व्यस्त होता है। केवल मध्य रेलवे में ही बुकिंग लिपिक एवं स्टेशन मास्टरों के क्रमशः १००० एवं १३१ रिक्त स्थान है। पूरे देशभर में इंजन ड्राइवरों के १७०००, गार्ड्स के ४०००, स्टेशन मास्टरों के ४७०० एवं गैंगमैनो के हज़ारों पद रिक्त हैं। रेलवे की दुर्घटना की यह एक प्रमुख वजह है और इस तरह प्रशासन की लापरवाही हमें किसी भी बहाने मंजूर नहीं हो सकती। सभी नागरिकां के लिए यह जानना आवश्यक है कि १९९१ में रेल कर्मचारियों की संख्या करीब १७ लाख थी जो २०११ तक घटाकर लगभग १३ लाख की गई जबकि गत २० वर्षां में रेलगाड़ियों की गति एवं संख्या में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं लोकल ट्रेन की संख्या में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। रेल मंत्रालय के “विजन २०२०” दस्तावेज के अनुसार २०२० तक २५००० किलोमीटर नई पटरियां बिछाई जाएगी, जब कि रेल कर्मचारियों की संख्या हर साल 4 प्रतिशत कम की जाएगी। मौजूदा कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ाकर एवं निजी ठेकेदारों को काम सौंपकर यह कटौती की जाएगी। आप सोच सकते हैं कि यात्री एवं कर्मचारियों की सुरक्षा का क्या हश्र होगा!
हर एक प्रवासी को सुखद व सुरक्षित यात्रा मोहैया करवाना प्रशासन का लाजमी फर्ज है, इसीलिए अब वक्त आ गया है की बड़े–बुजुर्ग, युवा, महिला – पुरुष तथा रेलवे में काम करनेवाले सब कर्मचारी संगठित हों और अपने हक़ो के लिए एक साथ मिलकर आवाज़ उठाएं।
– अनुपमा