As the saying goes, “The tree of liberty must be refreshed from time to time with the blood of patriots and tyrants!” If this is true, then how did India achieve independence through non-violence? Let us go through the hidden annals of history to know more.
The Hindustan Ghadar Party (HGP) was founded in 1913 in America. It consisted of progressive, patriotic, democratic and enlightened Indians living abroad, working for the emancipation of India from the yoke of British colonialism and for the birth of a new India. The word Ghadar means revolution. Amongst its various goals were:
1.To liberate India with the force of arms from British
servitude and to establish free and independent India with equal rights for all.
2.To publish a weekly paper, Ghadar, in Urdu, Hindi, Punjabi and other languages of India.
No discussion or debate on religion was to take place within the organization. Religion was considered to be a personal matter and had no place within the organization. The masthead of Ghadar bore the inscription, “Enemy of British Rule in India” in bold letters.
The Ghadaris called on people to reject the compromising path of the Congress Party. They faced the brutal repression and tyranny of the colonizers with the courage of conviction that their cause is just. They did not fear the gallows, or the Cellular Jail of kaalapani.
The ghadaris tried to organise an uprising in 1915, but they were betrayed. Countless heroes were martyred. There are many lessons that should be drawn from this glorious saga.
“If anyone asks who we are,
Tell him our name is rebel!
Our duty is to end the tyranny
Our profession is to launch revolution!
This is our Namaaz, this is our sandhya,
Our puja, our worship.
This is our religion,
Our work.
This is our only Khuda, our only Ram”
-Kartar Singh Sarabha, Ghadar Party Activist, martyr at age of 19
हिन्दोस्तानी ग़दर पार्टी के १०० साल बाद आप कितनी राजनीतिक पार्टीयों को जानते हैं? बेशक सैंकड़ो, लेकिन कितने लोगों को ‘हिन्दोस्तानी ग़दर पार्टी’ के बारे में पता है? शायद बहुत कम लोग जानते हों और जो जानते भी हों बस इतिहास की किताब का एक ‘अनुच्छेद’, परन्तु हिन्दोस्तानी ग़दर पार्टी का इतिहास बहुत विशाल और गौरवशाली है।
हिन्दोस्तानी ग़दर पार्टी का जन्म उन हालातां में हुआ जब ब्रिटिश शासनकाल में गुलामी, बदहाली और भुखमरी से तंग आकर कई आम हिन्दोस्तानियों ने बेहतर जीवन जीने की आशा में विदेशों में पलायन किया। लेकिन वहां भी उनकी दशा बहुत अच्छी न थी! करीब २० लाख परदेशी हिन्दोस्तानियों में से ८००० हिन्दोस्तानी अमेरिका और कनाडा में मज़दूरी कर अपना जीवन बिताते थे। उनमे से ज्यादातर पहरेदार व मज़दूर थे और ९०ः विस्थापित हिन्दोस्तानी ब्रिटिश सेना में उनकी बस्तियों का विस्तार करने या उनके लिए युद्ध में लड़ते और अपनी जान गवाते थे। परदेस में हिन्दोस्तानियों को नस्लभेद का सामना करना पड़ता और एक गुलाम देश का नागरिक होने के नाते दुर्व्यवहार और अपमान सहना पड़ता था।
पंजाब से विस्थापित कई हिन्दोस्तानी बड़ी संख्या में अमेरिका व कनाडा गए। वहां उन्हें दुर्व्यवहार और अपमान झेलना पडता था। इस असहनीय पीड़ा से उन्हें ये ज्ञात हुआ कि एक गुलाम देश का नागरिक होने से बेहतर है, अपने देश के लिए लड़कर मर जाना। इन सब हालातों में लाला हरदयाल की अगुवाई में दुनिया भर में भारतमाता की आज़ादी के लिए विस्थापित हिन्दोस्तानियों को संगठित होने का आवाहन किया। २१ अप्रैल १९१३ में कैलिफोर्निया (अमेरिका) में ‘हिन्दोस्तानी ग़दर पार्टी’ का गठन किया गया और कुछ ही दिनों में ‘ग़दर’ नामक मुखपत्र भी हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बंगाली और गुजराती भाषा में प्रकाशित करना शुरू किया। जिसको दुनिया भर में विस्थापित हजारों हिन्दोस्तानियों तक पहुँचाया गया। ‘ग़दर’ पत्रिका की चिंगारी पूरे दुनिया में बसे लाखों हिन्दोस्तानियों में आग की तरह फ़ैल गई, जल्दी ही ग़दर पार्टी की शाखाएँ दुनिया भर में अनेक जगहों पर खुली, जैसे – चीन, मलाया, यूरोप, फिलिपिन्स, अफ्रीका, हांगकांग, सिंगापुर, पनामा, अर्जेटीना, ब्राज़ील, ईरान, अफगानिस्तान, जापान, रूस,इ.।
धर्मं, जाति, प्रान्त और वर्ण से परे हटकर केवल भारतमाता को ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ाद करने का मकसद दिलों में रखकर ग़दरियों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ‘जंग दा होका’ (जंग का ऐलान) किया। उन्हीं ग़दरियों में १८ वर्ष के एक नवयुवक थे ‘करतार सिंह सराबा’। उनकी देशभक्ति व क्रांतिकारी भावना इस कदर थी कि वे अमेरिका में अपनी पढाई छोड़ इस क्रन्तिकारी कार्य को ही उन्होंने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य बना लिया और जगह-जगह जाकर लोगों को एकजुट और संगठित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही। उनका कहना था कि “देश सेवा की बाते करना बहुत ही आसान है, लेकिन जो इस पथ पे चलते है उन्हें लाखों विपदाओं और मुश्किलों को बर्दाश्त करना पड़ता है। (करतार सिंह सराभा को १९ वर्ष की आयु में १६ नवंबर १९१५ को फांसी दी गयी।)
ग़दरियों ने १९१५-१६ के दौरान कई ब्रिटिश बस्तियों की सेना के सिपाहियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया और कामयाबी भी हासिल की, जैसे – हांगकांग रेजिमेंट का विद्रोह, जनवरी १९१५ में रंगून रेजिमेंट का विद्रोह। कई सिपाहियों को कोर्ट मार्शल या सज़ा-ए-मौत दी गयी और क्रांति की राह पर कइयों ने हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूमा और शहीद हुए। क्रांति के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए अनेक शायरी व कविताएँ लिखीं। जिनमें से एक है –
चढ़ा मंसूर फांसी पर, पुकारा इश्क़बाजों को,
ये बीड़ा है तबाही का, उठाये जिसका जी चाहे।
ग़दरी- अमर सिंह
– दिनेश