(असेम्बली में बम फेंकने के बाद 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज मिस्टर लियानाई मिडिल्टन की अदालत में दिया गया भगत सिंह और दत्त का ऐतिहासिक बयान-सं.)
हमारे उपर गम्भीर आरोप लगाये गये हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि हम भी अपनी सफाई में कुछ शब्द कहें। हमारे कथित अपराध के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं:
1) क्या वास्तव में असेम्बली में बम फेंके गये थे, यदि हाँ तो क्यों?
2) नीचे की अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं, वे सही हैं या गलत.
पहले प्रश्न के पहले भाग के लिये हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी है वह सरासर झूठ है। चूंकि हम बम फेंकने से इंकार नहीं कर रहे हैं इसलिए यहाँ इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए। उदाहरण के लिए हम यहाँ बतला देना चाहते हैं कि सार्जेण्ट टेरी का यह कहना कि उन्होंने हम में से एक के पास से पिस्तौल बरामद की, वह एक सफेद झूठ मात्र है, क्योंकि जब हमने अपने आपको पुलिस के हाथों सौंपा तो हममें से किसी के भी पास कोई पिस्तौल नहीं थी। जिन गवाहों ने कहा है कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा था, वे झूठ बोलते हैं। न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वालों लोगों को इन झूठी बातों से एक सबक लेना चाहिए। साथ ही हम सरकारी वकील के उचित व्यवहार तथा अदालत के अभी तक के रवैये को भी स्वीकार करते है।
पहले प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देने के लिए हमें इस बमकाण्ड-जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पडे़गा। हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थियों के बीच किया, इसकी पूरी एवं खुली सफाई आवश्यक है।
जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आये थे। उन्होंने हमें बतलाया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना के बाद ही असेम्बली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि “यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, वरन सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था के विरूद्ध था।’’ यह सुनकर हमने तुरन्त भाँप लिया था कि लोगों ने हमारे काम के उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है।
मानवता को प्यार करने में हम किसी से भी पीछे नहीं हैं। हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणीमात्र को हमेशा आदर की निगाह से देखते आये हैं। हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं, जैसा कि सोशलिस्ट कहलाने वाले दीवान चमनलाल ने कहा है, और न ही हम पागल हैं, जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून तथा कुछ अन्य समाचार पत्रों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवाचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा-भर कर सकते है। हमें ढोंग तथा पाखण्ड से नफरत है।
एक अपकारजनक संस्था
यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है। हमारा उद्देश्य केवल उस शासन-व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है। इस विषय पर हमने जितना विचार किया उतना ही हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही कायम है और वह एक गैर-जिम्मेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है।
जनता के प्रतिनिधियों ने कितनी ही बार राप्ट्रीय माँगों को सरकार के सामने रखा, परन्तु उसने उन माँगों की सर्वथा अवहेलना करके हर बार उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया। सदन द्वारा पास किये गये गम्भीर प्रस्तावों को भारत की तथाकथित पर्लियामेण्ट के सामने तिरस्कारपूर्वक पैरों तले रौंदा गया है, दमनकारी तथा निरंकुश कानूनों को समाप्त करने की माँग करने वाले प्रस्तावों को हमेशा अवज्ञा की दृष्टि से ही देखा गया है और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों ने सरकार के जिन कानूनों तथा प्रस्तावों को अवांछित एवं अवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था, उन्हें केवल कलम हिलाकर ही सरकार ने लागू कर लिया है।
संक्षेप में, बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था के अस्तित्व का औचित्य हमारी समझ में नही आ सका जो बावजूद उस तमाम शानो-शौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र एक दिल को बहलाने वाली, थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी संस्था है। हम सार्वजनिक नेताओं की मनोवृत्ति को समझ पाने में भी असमर्थ हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण भारत की असहाय परतंत्रता की खिल्ली उड़ाने वाले इतने स्पष्ट एवं पुर्वनियोजित प्रदर्शनों पर सार्वजनिक संपत्ति एवं समय बर्बाद करने में सहायक क्यों बनते हैं।
हम इन्हीं प्रश्नों तथा मजदूर आन्दोलन के नेताओं की धरपकड़ पर विचार कर ही रहे थे कि सरकार ट्रेड-डिस्पूट बिल लेकर सामने आयी। हम इसी सम्बन्ध में असेम्बली की कार्यवाही देखने गये। यहाँ हमारा यह विश्वाश और भी दृढ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी भी बात की आशा नहीं कर सकती जो भारत के बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलाघोंटू शक्ति की अहितकारी यादगार है।
अन्त में वह कानून, जिसे हम बर्बर एवं अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया। जिस किसी ने भी कमरतोड़ परिश्रम करने वाले मूक मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा। बलि के बकरों की भांति शोषकों – और सबसे बड़ी शोषक स्वयं सरकार है- की बलिवेदी पर आये दिन होनेवाली मजदूरों की इन मूक कुर्बानियों को देखकर जिस किसी का दिल रोता है वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता।
गवर्हनर जनरल की कार्यकारिणी समिति के भुतपूर्व सदस्य स्वर्गीय श्री एस.आर. दास ने अपनी प्रसिद्ध पत्र में अपने पुत्र को लिखा था कि इंग्लैण्ड की स्वप्ननिद्रा भंग करने के लिए बम का उपयोग आवश्यक था। श्री दास के इन्ही शब्दों को सामने रखकर हमने असेम्बली में बम फेंके थे। हमने यह काम मजदूरों की तरफ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था। उन असहाय मजदूरों के पास अपने मर्मान्तक क्लेशों को व्यक्त करने का कोई साधन भी तो नहीं था। हमारा एकमात्र उद्देश्य था ‘बहरों को सुनाना’ और उन पीड़ितों की माँगो पर ध्यान देनेवाली सरकार को समय रहते चेतावनी देना।
हमारी ही तरह दूसरों की भी परोक्ष धारणा है कि प्रशान्त सागर रूपी भारतीय मानवता की ऊपरी शान्ति किसी भी समय फूट पड़ने वाले एक भीषण तूफान की द्योतक है। हमने तो उन लोगों के लिए सिर्फ खतरे की घण्टी बजायी है जो आने वाले भयानक खतरे की परवाह किये बगैर तेज रफ्तार से आगे की तरफ भागे जा रहे हैं। हम लोगों को सिर्फ यह बतला देना चाहते हैं कि ‘काल्पनिक अहिंसा’ का युग अब समाप्त हो चुका है और आज की उठती हुई नयी पीढ़ी को उसकी व्यर्थता में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं रह गया है।
मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमित प्रेम रखने के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है और उस आनेवाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखों आदमी पहले से ही देख रहे हैं।
काल्पनिक अहिंसा
ऊपर हमने ’काल्पनिक अहिंसा’ शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ पर उसकी व्याख्या कर देना भी आवश्यक है। आक्रामक उद्देश्य से जब बल का प्रयोग होता है उसे हिंसा कहते हैं और नैतिक द्रष्टिकोंण से उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन जब उसका उपयोग किसी वैध आदर्श के लिए किया जाता है तो उसका नैतिक उद्देश्य भी होता है। किसी हालत में बल-प्रयोग नहीं होना चाहिए, यह विचार काल्पनिक और अव्यवहारिक है। इधर देश में जो नया आन्दोलन तेजी के साथ उठ रहा है और जिसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं वह गुरू गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिजा खाँ, वाशिंगटन, गैरीबाल्डी, लाफायेट और लेनिन के आदर्श से ही प्रस्फुरित है और उन्ही के पद-चिन्हों पर चल रहा है। चूँकि भारत देश की विदेशी सरकार तथा हमारे नेतागण दोनों ही इस आन्दोलन की ओर से उदासीन लगते हैं और जान-बूझकर उसकी पुकार की ओर से अपने कान बन्द करने का प्रयत्न कर रहे हैं अतः हमने अपना कर्तव्य समझा कि हम एक ऐसी चेतावनी दें जिसकी अवहेलना न की जा सके।
हमारा अभिप्राय
अभी तक हमने इस घटना के मूल उद्देश्य पर ही प्रकाश डाला है। अब हम अपना अभिप्राय भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं।
यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खाने वाले व्यक्तियों अथवा असेम्बली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक विद्वेष की भावना नहीं थी। इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव-जीवन को अकथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और कि अन्य व्यक्ति को चोट पहुँचाने की बजाय हम मानव-जाति की सेवा में हँसते-हँसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे। हम साम्राज्यशाही की सेना के भाड़े के सैनिकों-जैसे नहीं हैं जिनका काम ही नर-हत्या होता है। हम मानव-जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। इसके बाद भी हम स्वीकार करते है कि हमने जान-बूझकर असेम्बली भवन में बम फेंके।
घटनाएँ स्वयं हमारे अभिप्राय पर प्रकाश डालती हैं और हमारे इरादों की परख हमारे काम के परिणाम के आधार पर होनी चाहिए न कि अटकल एवं मनगढ़न्त परिस्थितियों के आधार पर। सरकारी विशेषज्ञ की गवाही के विरूद्ध हमें यह कहना है कि असेम्बली भवन में फेंके गये बमों से वहाँ की एक खाली बेंच को ही कुछ नुकसान पहुँचा और लगभग आधे दर्जन लोगों को मामूली-सी खरोंचें भर आयीं। सरकारी वैज्ञानिकों ने कहा है कि बम बड़े जोरदार थे और उनसे अधिक नुकसान नहीं हुआ, इसे एक अनहोनी घटना ही कहना चाहिए। लेकिन हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था। पहले तो दोनों बम बेंचो तथा डैस्कों के बीच की खाली जगह में ही गिरे थे। दूसरे, उनके फूटने की जगह से दो फीट पर बैठे हुए लोगों को भी, जिनमें मिस्टर पी.आर. राउ, मिस्टर शंकर राउ तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं, या तो बिलकुल ही चोटें नहीं आयी या मात्र मामुली आयी। अगर उन बमों में जोरदार पोटेशियम क्लोरेट और पिंक्रिक एसिड भरा होता, जैसा कि सरकारी विशेषज्ञ ने कहा है, तो इन बमों ने उस लकडी के घेरे को तोडकर कुछ गज की दूरी पर खड़े हुए लोगों तक को उड़ा दिया होता। और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा जाता तो निश्चय ही वे असेम्बली के अधिकांश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते। यही नहीं, यदि हम चाहते तो उन्हें सरकारी कक्ष में फेंक सकते थे जो कि विशिष्ट व्यक्तियों से खचाखच भरा था। या फिर उस सर जान साइमन को अपना निशाना बना सकते थे, जिसके अभागे कमीशन ने प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के दिल में उसकी ओर से गहरी नफरत पैदा कर दी थी और जो उस समय असेम्बली के अध्यक्ष दीर्घा में बैठा था। लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा नहीं था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिए उन्हें तैयार किया गया था। यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुई तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे।
एक ऐतिहासिक सबक
इसके बाद हमने इस कार्य का दण्ड भोगने के लिए अपने आपको जान-बूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया। हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बतला देना चाहते थे कि मुट्ठी-भर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचलकर राष्ट्र को दबाया जा सकता है। हम इतिहास के इस सबक पर जोर देना चाहते थे कि परिचय-पत्र या परिचय चिह्न (Letter de catchet) तथा बैस्टाईल (फ्रांस की कुख्यात जेल जहाँ राजनैतिक बन्दियों को घोर यन्त्रणाएँ दी जाती थीं।) फ्रांस के क्रान्तिकारी आन्दोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे, फाँसी के फन्दे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रान्ति की आग को बुझा नहीं पायी थीं। तो फिर क्या अध्यादेश और सेफ्टी बिल भारत में आजादी की लौ बुझा सकेंगे, षड्यन्त्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड़यन्त्रों द्वारा नौजवानों को सजा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्र्रेरित नवयुवकों को जेल में ठूँसकर क्या क्रान्ति का अभियान रोका जा सकता है, हाँ सामायिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाये, लोगों की जानें बचायी जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती है। आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है।
क्रान्ति क्या है?
भगतसिंह से नीचे की अदालत में पूछा गया था कि क्रान्ति से हम लोगों का क्या मतलब है । इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था कि क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयाँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौलों का सम्प्रदाय नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है- अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।
समाज के प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पुँजीपति हड़प् जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया-भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करनेवाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति ज़रा-ज़रा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।
यह भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मूंह पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे है।
आमूल परिवर्तन की आवश्यकता
सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते सँभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निमाण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है और तब तक विश्व-शान्ति के युग का प्रादूर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रान्ति से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकट से बरी होगी और जिससे सर्वहारा वर्ग का अधिपत्य सर्वमान्य होगा और जिसके फलस्वरूप स्थापित होनेवाले विश्व-संघ पीड़ित मानवता को पूँजीवाद के बन्धनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।
सामायिक चेतावनी
यह है हमारा आदर्श और इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर हमने एक सही और पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोडे़ अटकाने से बाज् न आयी तो क्रान्ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतन्त्र की स्थापना होगी। यह अधिनायकतन्त्र क्रान्ति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। क्रान्ति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग का समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है। इन आदर्शो के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रान्ति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप् में लाये हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है। हम सन्तुष्ट हैं और क्रान्ति के आगमन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं।
इन्कलाब जिन्दाबाद!