
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ औरत बतौर मेरा स्थान नीचे हो;
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ औरत बनकर जीना रोज़ एक संघर्ष हो…
संघर्ष करने से मैं डरती नहीं, क्यूंकि हम समझते हैं संघर्ष ही जीवन का नियम है…
पर कैसा है ये समाज जहाँ संघर्ष इस बात पर है कि आखिर क्यों उसमें औरतों का स्थान दुय्यम है??
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ मेरी वज़ूद का पहचान बनता है केवल ‘इज्ज़त का गहना’;
नहीं चाहिए ऐसा समाज जिसने समानता के नाम पर औरतों के शोषण का मुखौटा है पहना..
सही है कि आज़ लड़ाई लड़नी है केवल औरतों का नहीं, क्यूंकि शोषण होता है मर्दों का भी;
पर औरत की लड़ाई है अपने वज़ूद के लिए लड़ने से शुरू, क्या ये भी नही हैं उतना ही सही?
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ औरत का वज़ूद हो सिर्फ ‘इज्ज़त’;
बल्कि चाहिए ऐसा समाज जहाँ इज्ज़त हो क्यूंकि वज़ूद है मेरा औरत…
मेरी ‘इज्ज़त’, मेरी ‘शरम’, मेरी ‘चमड़ी’ बस ये ही सब नहीं हैं मेरी पहचान;
एक नए जीवन को साँस देने की ताक़त रखती है केवल औरत, क्या इस बात को भूल जाना है इतना आसान?
अरे, नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ खुदके लिए लड़ना मुझे बचपन से है सिखाया जाता नहीं;
नहीं चाहिए ऐसा समाज जो पूरी जिंदगी मुझे बनाता है किसी मर्द की ज़िम्मेदारी हर घड़ी..
कैसी है ये विकृत सोच जिसके चलते औरत को केवल उपभोग की वस्तु बतौर देखा जाता है;
समानता के वादे दिखते हैं केवल काज़गों पर, वादा करनेवालों को अकसर हमें बेआबरू करते देखा जा सकता है…
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ मेरी लड़ाई को मेरे भाइयों की लड़ाई से अलग बताया जाता है;
नहीं चाहिए ऐसा समाज जहाँ मेरे हक्क मुझे लड़ने के बाद भी भीख समझकर दिये जाते हैं..
चाहिये एक ऐसा समाज़ जहाँ मैं खुली साँस ले सकूँ, औरत बतौर सिर शरम से झुका कर नहीं बल्कि फक्र से उठाकर ज़ी सकूँ!
अपने वज़ूद से डरकर नहीं बल्कि अपनी पहचान बनाने की कमान अपने हाथ में ले कर हिम्मत से जी सकूँ..
चाहिये एक ऐसा समाज़ जहाँ रास्ते पर चलती औरत की इज्ज़त को नहीं बल्कि औरत को इज्ज़त से देखा जाए;
जहाँ औरत वस्तु बतौर नहीं, समाज़ में बराबरी के इंसान बतौर सम्मान पाए..
चाहिये एक ऐसा समाज़ जो औरत और मर्द पर होने वाले हर अत्याचार से हो मुक्त..
जहाँ बिना जाति, धर्म, लिंग देखे एक के दुख से हो सभी को तकलीफ़ और एक के सफलता में सभी को मिले सुख…
—-शिरीन