Reproducing a poem by Shri Braj Raj Kishor ‘Rahgir’
किसी ज़माने में कविता को अन्याय और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एक शक्तिशाली हथियार माना जाता था। ज़ाहिर है कि आजकल ऐसा नहीं है। फिर भी दिल है कि मानता नहीं।
हो गए हैं इस क़दर ग़ुस्ताख़ अब भँवरे चमन में,
तितलियाँ डरने लगी हैं, पंख फैलाते हुए भी।
रोज़ मसली जा रही हैं, अधखिली मासूम कलियाँ,
काँपते हैं डालियों पर, फूल मुस्काते हुए भी।
हैं हवायें सर्द इतनी, जम गया है ख़ून सबका,
बदतमीज़ों से शहर में, कोई टकराता नहीं है।
कौन तोड़ेगा भला यह, ख़ौफ़ की दुनिया तिलस्मी,
कोई ज़िन्दादिल निकलकर, सामने आता नहीं है।
हौसले अपराधियों के हैं बुलन्दी पर, तभी तो
सिलसिले यह बच्चियों पर ज़ुल्म के रूकते नहीं हैं।
है कहीं मग़रूर सत्ता, तो कहीं लुच्चे-लफ़ंगे,
ये सभी क़ानून के हथियार से झुकते नहीं हैं।
है अग़र क़ानून में दम, क़ातिलों को डर नहीं क्यूँ,
ज़ुर्म करते वक़्त अपराधी नहीं क्यूँ थरथराता।
वहशियाना हरकतें करते हुए इन ज़ालिमों को,
क्यूँ नहीं अपने घरों की बेटियों का ध्यान आता।
वासनाओं की नदी में, बाढ़ आई है भयंकर,
संस्कारों के क़िले सब, टूटकर ढहने लगे हैं।
व्यवस्था तो कर रही है, गुनहगारों की हिफ़ाज़त,
और जो मज़लूम हैं, दहशतज़दा रहने लगे हैं।
मोमबत्ती हाथ में लेकर, सड़क पर क्या निकलना,
अब मशालें थामने का वक़्त है, अंगार बनिए।
शासकों की नींद, धीमे बोल से खुलती नहीं है,
मुठ्ठियों को भींचकर चिल्लाइये, हुंकार बनिए।
–बृज राज किशोर ‘राहगीर’